प्राकृतिक चिकित्सा और योग वाले सत्याग्रही

imagesfrom google 


अक्टूबर के पहले पखवाड़े में गांधी, शास्त्री, जे.पी. और लोहिया जैसे लोक सेवकों को याद किया जाता है। बीसवीं सदी के इन चारों विभुतियों का प्रभाव आजादी के पहले और बाद की सियासत पर मौजूद है। इक्कीसवीं सदी में गंगा की अविरलता के लिए सत्याग्रह के कारण शहीदों के नाम जुड़ते हैं। गंगा के उद्गम क्षेत्र में अविरलता सुनिश्चित कराने के लिए प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल (स्वामी सानंद) ने सत्याग्रह किया था। इसी एक दशक के दौरान "अविरलता बिन गंगा निर्मल नहीं" जैसा मंत्र भी निकलता है। अंत में 111 दिनों के लंबे अनशन के बाद लोक नायक जय प्रकाश नारायण के 116वें जन्म दिवस पर वे परलोक सिधार गए। गंगा की अस्मिता के लिए उन्होंने महामना मदन मोहन मालवीय की तरह बड़ी लकीर खींचने का काम कर इस कड़ी में एक और नाम जोड़ने का पुरुषार्थ किया है। इन सभी विभुतियों के जीवन में लोक सेवा और स्वदेशी सत्याग्रही संस्कृति का समावेश मिलता है। हालांकि इस महामारी के संक्रमण काल में उत्सव की पुरानी रीति को दोहराना संभव नहीं है, पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता बराबर बनी हुई है।


यह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अवसान का शताब्दी वर्ष है। इस पर गृह मंत्री अमित शाह ठीक ही कहते हैं कि मरण और स्मरण का भेद मिटाने हेतु तिलक होना होता है। परदेसियों की दासता के विरुद्ध स्वदेशी शासन कायम करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती की सक्रियता को तिलक के उस नारे से बल मिलता है, जिसमें स्वराज को जन्म सिद्ध अधिकार मान कर इसे हासिल करने की बात कही गई है। लाल बाल पाल के युग में कांग्रेस गरम दल व नरम दल में विभाजित हो गया था। अंग्रेजों के जेल में उन्होंने गीता रहस्य लिखने का काम किया। सही मायनों में तिलक राजनीति के ऐसे स्कूल माने जाते थे, जिन्हें गांधी भी अपने गुरुजनों के तौर पर गिनते रहे।


लोकमान्य को सागर मानने वाला शिष्य स्वयं को ऐसा राजनेता कहता है, जो संत होने की कोशिश में लगा है। उनके अवसान के बाद लाहौर में लाला लाजपत राय ने दी तिलक स्कूल ऑफ पालिटिक्स शुरू किया, जो अगले वर्ष लोक सेवक मंडल के रुप में विकसित हुआ। गांधी इनका सूत्रपात करने के लिए लाहौर पहुंचते हैं। बलवंत राय मेहता और लाल बहादुर शास्त्री जैसे देशभक्तों को इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं। बाद में छबील दास इसके प्रिंसिपल नियुक्त हुए। संस्कृतियों के संरक्षण और स्वराज की पैरोकारी की वह परंपरा समाजवाद और पूंजीवाद के दौर में एक अलग किस्म की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करती है। इसी सत्याग्रही दर्शन में दुनिया को कुदरत के अनुकूल राजनीति का तीसरा मार्ग दिखता है। नतीजतन आधुनिक तकनीकी और उदारीकरण के दौर में भी दुनिया भर में इसके प्रति सम्मान का भाव बरकरार है।


गांधी लोक जीवन को प्रभावित करने वाले तमाम विषयों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझते इस काल पर महामारी और टीकाकरण हावी है। इन संवेदनशील विषयों पर उनकी बातों पर गौर करना चाहिए। सैंतीस की तरुण अवस्था में ही उन्होंने गाइड टू हेल्थ लिख कर पब्लिक हेल्थ जैसे मामले में चल रही राजनीति की पोल खोल दिया था। इस पुस्तिका में महामारी और टीकाकरण जैसे सवालों पर गंभीर विचार मिलते हैं। भारत की भूमि पर राजनीतिक पारी शुरू करने से पहले हिन्द स्वराज लिख कर अपनी सियासी सूझबूझ का परिचय देते हैं। जे.पी., शास्त्री और लोहिया गांधी का अनुशरण करते हैं। बाद में प्रोफेसर अग्रवाल भी इसी दिशा में अग्रसर होते हैं।


महात्मा गांधी का मानना था कि टीकाकरण एक बर्बर प्रथा है, जो आधुनिक युग के सबसे घातक फहमियों में से एक है। पहली बार उन्होंने 1906 में छूत के रोगों के खिलाफ टीकाकरण की निंदा की। एक पूरा अध्याय उस काल के सबसे संक्रामक रोग चेचक पर लिखते हैं। उन्होंने कहा, “यदि यह वास्तव में एक छूत की बीमारी होती, तो इसे हर किसी को केवल रोगी के स्पर्श मात्र से लग जाना चाहिए, लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है। इसलिए रोगी को छूने में वास्तव में कोई नुकसान नहीं है, बशर्ते हम ऐसा करते हुए आवश्यक सावधानी बरतें। हम निश्चित रूप से यह दावा नहीं कर सकते हैं कि चेचक कभी भी स्पर्श द्वारा प्रसारित नहीं होता है, क्योंकि जो शारीरिक रूप से इसके संक्रमण के लिए अनुकूल स्थिति में हैं, वे तो इसका शिकार होंगे ही।” ब्रिटिश एंटी-वैक्सीनेशन सोसाइटी की जांच में सामने आई पांच अहम बिन्दुओं का जिक्र कर उन्होंने इसकी बुराइयों के संदर्भ में निष्कर्ष निकाला, “इस मामले का तथ्य यही है कि यह केवल डॉक्टरों का स्वार्थ है जो इस अमानवीय प्रथा के उन्मूलन के रास्ते में खड़े हैं, इसके कारण होने वाली मोटी आय को खोने का डर उन्हें अनगिनत बुराइयों के लिए अंधा बना देता है।” उन्होंने जिसे केवल डॉक्टरों का स्वार्थ माना उसी प्रथा के उन्मूलन के रास्ते में खड़े लोगों की संख्या इतनी बढ़ चुकी है कि टीकाकरण के मामले में उनकी बात पर कायम रहने से मुश्किलें खड़ी होती है।


दण्डी मार्च और नमक सत्याग्रह से दस साल पहले ही नमक खाना छोड़ दिया था। बकरी का दूध और आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन कर ही जीवन व्यतीत करते हैं। सुबह मड पैक में लिपटे गांधी मुंबई में जिन्ना के घर में महंगी कालीन को गंदा करने के कारण भी जाने जाते हैं। उनके सत्याग्रह की संस्कृति प्राकृतिक चिकित्सा और योग जैसै आधारों पर आश्रित है। हालांकि उन्होंने कई मुद्दों पर अपनी राय बदलने में संकोच नहीं किया, पर टेक्नोलॉजी और टीकाकरण की बात पर आजीवन कायम रहे। आज इसी का पुनर्पाठ जरूरी है।


उन्होंने सत्याग्रह को एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर दुनिया के सामने नजीर पेश किया। आजादी के बाद जे.पी. और बिनोवा जैसे शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया। यह राजनीति के उत्थान और लोकनीति के पतन का दौर साबित हुआ। आज कोरोना महामारी का ऐसा हौवा बाजार में पसरा है कि दुनिया भर के लोग परेशान हैं। इस भय को दूर करना जरूरी है। चिकनी मिट्टी से प्राकृतिक चिकित्सा और योग के साथ दिन की शुरुआत करने वाले सत्याग्रही राजनेता का जीवन ही उनका वास्तविक संदेश है। इसे बारीकी से जानना-समझना आज बहुत जरूरी है।

--


कौशल किशोर | Twitter @mrkkjha