दोपहर तक सरकारी तंत्र राहत और बचाव के कार्यों में जुट गया। एहतियात के तौर पर भागीरथी नदी का प्रवाह रोकने और तटीय क्षेत्रों को खाली करने का ऐलान किया गया। हालांकि शाम तक निचले क्षेत्रों में बाढ़ की आशंका पर नियंत्रण मुमकिन हो जाता है। इस हादसे का शिकार हुए लोगों को बचाने में लगे सुरक्षा बलों की तत्परता भी खूब है। साथ ही मानव निर्मित इस तबाही को आपदा करार देने की राजनीति पर चर्चा भी जरूरी है।
बिना बरसात के अचानक आई बाढ़ में सौ से ज्यादा लोग बह गए। आठ साल पहले केदारनाथ की तबाही के दौरान भीषण बारिश से मुश्किलें बढ़ती गई थी। इस बार हताहत होने वाले ज्यादातर लोग 11 मेगावॉट क्षमता वाले ऋषिगंगा हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट के विनिर्माण में शामिल श्रमिक हैं। इसी विकास के लिए एनटीपीसी ने अपने नाम से मुंह फेर कर 520 मेगावाट क्षमता वाला तपोवन विष्णगाड़ प्रोजेक्ट इसी क्षेत्र में धौलीगंगा पर बना रही है। इन परियोजनाओं के लिए काम करने वाले श्रमिकों को सुरंगों में खोजने का बेहद मुश्किल काम आपदा प्रबंधन सेवा के जवानों ने संभाला। बहरहाल यात्रा सीजन दूर है। इसलिए इसका शिकार हुए यात्रियों की संख्या कम ही है।
अकाल मृत्यु का शिकार हुए इन श्रमिकों, ग्रामीणों और यात्रियों के विनाश का कारण विकास है, जिसने इसे आमंत्रित किया है। स्वयं को कुदरत का अंग मान कर जीने की स्वदेशी संस्कृति के बदले आधुनिक सभ्यता के चमक-दमक में डूबने पर ऐसा ही होगा। ऋषिगंगा और धौलीगंगा हिमशिखरों के स्खलन में ऑलवेदर रोड, पनबिजली परियोजनाओं और विकास की तकनीकी का अहम योगदान है। सरहद पार तिब्बत में चल रहे विकास के कार्यों को भी इस परिधि से बाहर रखना उचित नहीं है। फलतः यह एक कृत्रिम तबाही को प्राकृतिक आपदा बताने की राजनीति साबित होती है। इसकी जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं।
आजादी से पहले देश उपनिवेशवाद का शिकार था। गांधीजी की कोशिशों के बावजूद आजादी के बाद इस मानसिकता से उबरने का वाजिब प्रयास नहीं किया गया। नतीजतन हिमालय और हिन्द महासागर में भी इसकी गिरफ्त कसने लगी। विकास के लिए निवेश की आड़ में औपनिवेशिक मानसिकता ही हावी है। यह कुदरत और कम्युनिटी का विनाश कर ही दम लेगी। विकास के इन नायाब सपनों को भू राजनीतिक वास्तविकताओं से भी खाद-पानी मिलता है। चीन के हाथों 1959 में तिब्बत का पतन इसका उदाहरण है। इसके पहले ही अमरीका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने 1949 में दुनिया को विकासवाद का मंत्र दिया। इसकी वजह से अगले चार दशकों में दुनिया विकसित और अविकसित नामक दो भागों में बंट गई। हालांकि इसके तीन साल बाद 1952 में मेडलिन स्लेड (मीरा बेन) ने 'समथिंग राॅग इन हिमालया' लिख कर दुनिया भर के लोगों का ध्यान हिमालय में चल रही उथल-पुथल की ओर आकृष्ट किया था।
फिर डेवलपमेंट डेकेड्स के बाद 1989 में उत्तर विकासवाद की चर्चा अवश्य हुई। परंतु उदारीकरण और उपभोक्तावाद के नीचे दब कर यह दम भी तोड़ देती है। गांधी के सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे शिष्यों ने हिमालय की संस्कृति को परिभाषित करने का जतन किया है। महिलाओं ने चिपको आंदोलन में शामिल होकर इसे साबित किया। ईक्कीसवीं सदी में इसके प्रति सम्मान का भाव भी प्रदर्शन में सिमट कर रह गया है। यह बाजारुपन जनचेतना पर हावी है। शासक वर्ग के सामने नतमस्तक रीढ़विहीन राजनीतिक वर्ग की हिम्मत भी जवाब दे चुकी है। एक तरफ बिजली की जगमगाती रौशनी है और दूसरी तरफ अभूतपूर्व गहन अंधकार भी।
हिमालय के शिवालिक रेंज में भूस्खलन एक गंभीर समस्या है। क्षीण होते वन और वनस्पतियों की बदलती प्रजातियां इसके जड़ में हैं। ऐसे ही बर्फीले क्षेत्र में हिमशिखर के स्खलन से समस्या खड़ी होती है। आबादी से दूर होने के कारण अमूमन इसकी वजह से जान-माल की क्षति नहीं होती रही। परंतु विकास अब तेजी से पांव पसार रहा है। हिमालय में सुरंगों का जंजाल फैलता ही जा रहा है। ईक्कीसवीं सदी में लोग वहां भी रेलगाड़ी की सवारी करने वाले हैं, जहां पर उनके पूर्वजों ने कभी ट्रेन नहीं देखा था। इसके कारण समस्याएं तो खड़ी होंगी ही। ऐसी दशा में हिमशिखर के स्खलन से घटोत्कच के अंत की कहानी याद आती रहेगी। आज बचाव और राहत तक सिमटने के बदले इन समस्याओं के स्थायी समाधान की ओर ध्यान देना होगा। अन्यथा आम जनता इसे बाबूओं और राजनेताओं का विधवा-विलाप ही समझेगी।