केन्द्र सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच वार्ताओं के कई दौर पूरे होने पर भी कोई नतीजा नहीं निकला। किसान नेताओं का गणतंत्र दिवस पर आयोजित ट्रैक्टर रैली हिंसक तत्वों के हवाले हो गया। इसके कारण शांतिपूर्ण प्रदर्शन में लगे किसानों की बदनामी हुई। यह अराजक तत्त्वों के वर्चस्व का प्रतीक है। इससे गांधीवादी तरीकेे से सत्याग्रह करने वाले किसानों की घर वापसी मार्ग प्रशस्त होता है। हालांकि गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर दसवें दौर में डेढ़ साल के लिए तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगाने का प्रस्ताव किसानों की जीत का सूचक है। इसे 15 संगठनों का समर्थन भी मिला। अब इसके विरुद्ध खड़े 17 सगठनों की मंशा पर सवालिया निशान है। लोकतांत्रिक तरीके से आपसी सहमति पर विचार करने के सराहनीय प्रयास को खारिज करने की वास्तविक मंशा अब स्पष्ट हो गई है।
उच्चतम न्यायालय ने इन तीनों कानूनों पर अग्रिम आदेश तक के लिए रोक लगा रखा है। हालांकि कोर्ट द्वारा गठित चार सदस्यों वाली कमेटी के एक सदस्य भूपिंदर सिंह मान ने प्रक्रिया शुरु होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया। सेवानिवृति एक न्यायाधीश भी इसकी अध्यक्षता का प्रस्ताव खारिज कर चुके हैं। इन सब के बावजूद इस कमिटी के सदस्यों ने अपना काम शुरू कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक समस्या का कानूनी समाधान निकालने की कवायद से न्यायालय की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है।
इस जनांदोलन की शांतिपूर्ण व्यवस्था का हिंसक रुप लेना अण्वेषण का विषय है। सत्याग्रह के प्रति सरकारों का रुख देख कर नागरिकों के बीच बेहतर पकड़ रखने वाले समूहों ने शक्ति प्रदर्शन का रास्ता बराबर अख्तियार किया है। इसकी परिधि से यह आंदोलन भी कभी बाहर नहीं रहा है। अराजक तत्त्वों को रोकने के लिए एनआईए समेत तमाम एजेंसी सक्रिय रही। इसके बाद भी गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा को रोका नहीं जा सका। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस मोर्चा का इस्तेमाल खालिस्तान द्वारा करने का जिक्र किया है। असामाजिक और अराजक तत्त्वों को खुली छूट देना सरकार की उदारता के बदले अकुशलता ही माना जाएगा। सही मायनों में खालसा पंथ और खालिस्तान शुद्धता को सर्वोपरि मानने का सूचक है। शुचिता का परित्याग करने पर ऐसा कोई पवित्र लक्ष्य पाक नहीं रह जाता। इसी बात को इंगित कर गांधीजी साधन और साध्य दोनों की पवित्रता की बात कहते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसदीय प्रणाली के विषय में मान्यता है कि यह विपक्ष को कहने के लिए और सत्ता पक्ष को करने के लिए अवसर देती है। तालाबंदी के दौरान पारित इन कानूनों के मामले में न ही विपक्षी दलों को कहने का अवसर मिला और न ही इसके समर्थकों की सही स्थिति सामने आई। इसे न तो मीडिया में होने वाली चर्चा से दूर किया जा सकता है और न ही सियासी दांव-पेंच के इस्तेमाल से। अब इस हिंसक प्रदर्शन के कारण यह मामला मंझधार में फंस गया है। सरकार को ही इसे ठीक करना होगा।
जहां तक खेती में कांट्रेक्ट और एमएसपी की बात है, दोनों की स्थिति पब्लिक डोमेन में है। देश के कुल छह फीसदी किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है। इस व्यवस्था के कारण ही बिहार के किसानों की धान और गेहूं की उपज दूसरे राज्यों की मंडियों में बिकती हैं। साथ ही यह भी सच है कि जहां कांट्रेक्ट फार्मिंग से किसानों को लाभ मिलता है, वहां ऐसा होता रहा है। कांग्रेस परिवार और वामपंथी दलों का समर्थन होने के बावजूद किसानों ने इनके नेताओं को मंच नहीं सौंपा है। इसकी एक वजह यह है कि सत्ता में रहते हुए इन्होंने भी ऐसै कानूनों को अमलीजामा पहनाने का प्रयास किया।
भारतीय संविधान में कृषि और बाजार दोनों ही राज्य सूची का मामला है। केंद्र सरकार इन मामलों में कानून बनाने के लिए राज्यों को राजी करने की कोशिश ही कर सकती है। इसी वजह से केरल की वामपंथी सरकार ने इसे खारिज करने का काम किया। इस तरह का प्रयास अन्य राज्यों में भी संभव है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग देश भर के किसान कर रहे हैं। परंतु सरकार इसके लिए तैयार नहीं है।
डा. लोहिया ने कहा था, अगर सड़कें खामोश हो जाय तो संसद आवारा हो जाएगी। हिन्द स्वराज में गांधीजी संसद की तुलना वेश्या से करते हैं। इन दोनों विभुतियों की बातों पर गौर करने से पता चलेगा कि कास्तकारी पर आधारित भारतीय संस्कृति एक ऐसी सभ्यता का शिकार हो गई है, जो किसान के हाथों में पवित्र किताबें थमा कर उनकी जमीन छीनने में लगी है। आज पाॅलिटिकल क्लास और रुलिंग क्लास की सारी सियासत इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। सामान्य जनता ने ही उन्हें इस खेल के लिए आमंत्रित किया है। जब तक इसका प्रतिकार नहीं होगा, किसान हितों पर बदस्तूर कुठाराघात होता रहेगा।
इस बात पर चर्चा नहीं होती कि किसानों के घरों में कितने साल तक अनाज सड़ता नहीं है। यह खाद्य निगम के गोदाम में सड़ने वाले अन्न की पर टिकी है। अमरीका में कम उम्र में साफ्टवेयर की स्क्रिप्ट लिखने के कारण चर्चा में आए बिल गेट्स आज कई अन्य वजहों से भी सुर्खियों में हैं। इसका एक कारण यह है कि 242,000 हेक्टेयर की कृषि भूमि के स्वामित्व के साथ सबसे बड़े किसान भी वही हैं। खरीद-फरोख्त की वस्तुओं की सूची में धरती माता को शामिल करने के बाद किसी धनकुबेर के लिए ऐसा करना नामुमकिन नहीं रह जाता है। धरती माता और कृषि संस्कृति की रक्षा के लिए किसानों को साध्य और साधन की शुचिता को ध्यान में रख कर ही आगे बढ़ना होगा।